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अनजानी राहे

एक अनजान राह पर चल पड़े मुसाफिर,
चलना था, बस चलना ही था इस राह पर।
 
आगे क्या होने वाला है, ये पता नहीं था,
अपने सब हैं, साथ खुशी थी इसकी काफी।
 
अपनों से दूर हुआ तो सहसा कांप उठा,
मन की धरती से आहों का संताप उठा।
 
सुख-दु:ख किसे सुनाएगा ए पथिक बता,
तेरी आंखों में तो भरे हैं अपनों के सपने।
 
किसे पता सोने के पिंजरे में पंछी की आहों का, 
दिखता है तो एक मुखौटा झूठ-मूठ की चाहों का।
 
मन में दबी उदासी बाहर से नजर नहीं आती,
छुपे हुए आंसू और आहें भी नजर नहीं आतीं।
 
अरमां सबके पूर्ण हुए, है इसका संतोष मगर,
दूर तलक तुझको अपनी मंजिल नजर नहीं आती।

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